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10 October 2021

7741 - 7745 महबूब मोहब्बत पहचान ज़वानी अंज़ाम सिला रूह वज़ूद शायरी

 

7741
पत्थरपें गिरक़े आईना,
टुक़ड़ोंमें बट ग़या...
क़ितना मिरे वज़ूदक़ा,
पैक़र सिमट ग़या.......
               यासीन अफ़ज़ाल

7742
मेरे महबूब इतराते फ़िरते थे,
ज़वानीपें अपनी...l
मेरे बिना अपना वज़ूद,
जो देखा तो रूह क़ांप ग़ई...!!!

7743
हश्र--मोहब्बत और अंज़ाम,
अब ख़ुदा ज़ाने,...
तुझसे मिलक़र मिट ज़ाना ही,
मेरा वज़ूद था.......

7744
मेरे हरे वज़ूदसे,
पहचान उसक़ी थी l
बे-चेहरा हो ग़या हैं,
वो ज़बसे झड़ा हूँ मैं ll
अज़हर अदीब

7745
बनाक़े छोड़ देते हैं,
अपने वज़ूदक़ा आदि...
क़ुछ लोग़ इस तरह भी,
मोहब्बतक़ा सिला देते हैं...