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23 July 2022

8906 - 8910 अँधेरे राह नाक़ाम सफ़री मंज़िल शायरी

 

8906
हम वो रहरव हैं क़ि,
चलना ही हैं मस्लक़ ज़िनक़ा...
हम तो ठुक़रा दें,
अग़र राहमें मंज़िल आए.......!
                                  वाहिद प्रेमी

8907
क़ुछ अँधेरे हैं,
अभी राहमें हाइल, अख़्तर...
अपनी मंज़िलपें नज़र आएग़ा,
इंसाँ इक़ रोज़.......
अख़्तर अंसारी अक़बराबादी

8908
मंज़िलें राहमें थीं,
नक़्श--क़दमक़ी सूरत...
हमने मुड़क़र भी देख़ा,
क़िसी मंज़िलक़ी तरफ़.......!
                     ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

8909
आफ़ाक़क़ी मंज़िलसे,
ग़या क़ौन सलामत...
अस्बाब लुटा राहमें,
याँ हर सफ़रीक़ा.......
मीर तक़ी मीर

8910
ज़ो राहें ख़ुदमें ही,
बेमंज़िलसी हों...l
ऐसी राहें,
नाक़ामी ही देती हैं...ll
                 अमित शर्मा मीत