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4 April 2022

8456 - 8460 अज़ीब मंज़िल ख़्वाहिश क़दम शौक़ तन्हा राह शायरी

 

8456
सिर्फ़ इक़ क़दम उठा था,
ग़लत राह--शौक़में...
मंज़िल तमाम उम्र,
मुझे ढूँढती रहीं.......
               अब्दुल हमीद अदम

8457
नमक़क़े ड़िब्बेमें,
एक़ चींटी मिली...
क़भी क़भी ग़लत राहपर लोग़,
क़ितना आग़े निक़ल ज़ाते हैं.......

8458
एक़ अज़ीब रिश्ता हैं,
मेरे और ख़्वाहिशोंक़े दरमियाँ...
वो मुझे ज़ीने नहीं देती और,
मैं उन्हें मरने नहीं देता.......
                                          ग़ुलज़ार

8459
मंज़िलका तो पता नहीं,
राहे शायद एक़ ही थी...
हमने वो भी,
अक़ेले ही तय क़िया...

8460
तुम ज़ब क़भी आओगे इस राह...
तो तुम देख़ना ;
तन्हा जैसे छोड़े थे तुमने आज़ भी...
मैं वैसी हूँ तन्हा ll