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30 September 2017

1786 - 1790 दिल जालिम कदर हवाले हँसी दिखावे तमाशा खफा भूल बात मजबूर शायरी


1786
मैं बहुत जालिम हूँ ना,
ए मेरे दिल...?
तुझे हमेशा उसके हवाले किया,
जिसे तेरी कोई कदर ही नहीं...!!

1787
मुझसे अब और तमाशा हो नहीं सकता,
ले जा ये दिखावेकी हँसी भी आकर.......

1788
हम तो अपने आपसे भी,
खफा नहीं हो सकते;
हमारी दिलकी मजबूरीयाँ ही,
कुछ अलग हैं.......

1789
रोज़ सोचता हुँ,
रोज़ यहीं बात...
उन्हे भूल जाऊ,
भूल जाता हुँ........

1790
गरूर तो नहीं करता लेकिन,
इतना यक़ीन ज़रूर हैं . . .
कि अगर याद नहीं करोगे तो...
भुला भी नहीं सकोगे . . . . . . .