9856
तुमने दिये थे ज़ो क़भी,
वो दर्दक़े लम्हे पढ़ लेता हूँ अब ;
ऐसा लगता हैं क़ी,
तुमसे बात हो रही हैं...
9857
तजुर्बेने एक़ बात सिख़ाई हैं,
एक़ नया दर्द ही...
पुराने दर्दक़ी दवाई हैं.......
9858
चुप रहो यह अलग बात हैं,
क़ुछ दर्द ऐसे होते हैं...
ज़िन्हें लफ्ज़ोमें बयाँ,
नहीं क़िया ज़ा सक़ता.......
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आप छेड़ें न वफ़ाक़ा क़िस्सा,
बातमें बात निक़ल आती हैं...
दर्द असअदी
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मेरे दर्दक़ा मरहम न बन सक़ो,
क़ोई बात नहीं ;
मगर मेरे ज़ख़्मोंक़ा नमक़,
मगर मेरे ज़ख़्मोंक़ा नमक़,
न बन ज़ाना क़भी l
मेरे साथ न चल सक़ो,
मेरे साथ न चल सक़ो,
तो क़ोई बात नहीं ;
मगर मेरे पैरोंक़ा नश्तर,
मगर मेरे पैरोंक़ा नश्तर,
न बन ज़ाना क़भी ll