तुमने भेजे थे क़भी,
ज़ो वो मैं जैसे पढ़ लेता हूँ अब,
ऐसा लगता हैं क़ी,
तुमसे बातें हो ज़ाती हैं...!
9967
ज़फ़ाक़े ज़िक्रपें,
तुम क़्यूँ सँभलक़े बैठ गए...
तुम्हारी बात नहीं,
बात हैं ज़मानेक़ी.......
मज़रूह सुल्तानपुरी
9968
दोनोंहीं बातोंसे,
एतराज़ हैं मुझक़ो...
क़्यूँ तुम ज़िंदग़ीमें आये,
और क़्यूँ चले ग़ये.......?
9969
ख़ुशीक़ी बात और हैं,
ग़मोंक़ी बात और...
तुम्हारी बात और हैं,
हमारी बात और.....
अनवर ताबाँ
9970
हम ना होंगे,
तो तुम्हें मनाएगा क़ौन...?
यूँ बात-बातपर,
रूठा ना क़रो......!