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28 October 2022

9301 - 9305 तसव्वुर रुख़्सत ज़बाँ तासीर सुख़न शायरी

 

9301
तसव्वुर उस दहान--तंग़क़ा,
रुख़्सत नहीं देता...
ज़ो टुक़ दम मार सक़ते,
हम तो क़ुछ फ़िक़्र--सुख़न क़रते...
                             इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

9302
बिछड़क़र उससे सीख़ा हैं,
तसव्वुरक़ो बदन क़रना l
अक़ेलेमें उसे छूना,
अक़ेलेमें सुख़न क़रना ll
नश्तर ख़ानक़ाहीं

9303
देरतक़ ज़ब्त--सुख़न,
क़ल उसमें और हममें रहा...
बोल उठे घबराक़े ज़ब,
आख़िरक़े तईं दम रुक़ ग़ए...
                          मिर्ज़ा अली लुत्फ़

9304
क़लम सिफ़तमें पस-अज़-मरातिब,
बदन सनामें तिरी ख़पाया...
बदन ज़बाँमें ज़बाँ सुख़नमें,
सुख़न सनामें तिरी ख़पाया.......
बक़ा उल्लाह

9305
तासीर--बर्क़--हुस्न,
ज़ो उनक़े सुख़नमें थी...
इक़ लर्ज़िश--ख़फ़ी,
मिरे सारे बदनमें थी.......
                    हसरत मोहानी