मैं अपना सब्र आजमाता हूँ,
उस गलीमें कम ही जाता हूँ;
देखता हूँ कुरेदकर खुदको,
कि कितने ज़ख्म झेल पाता हूँ;
दिलका शहर मरहम समझता हैं हमें,
चोट खाये आशिक़ों में ऐसे मशहूर हूँ ll
आजाद शायरी
6407
चिंगारियाँ
ना डाल मेरे
दिलके घावमें,
मैं खुद ही
जल रहा हूँ
दुखोंके अलावमें...
हैं कोई अहले
दिल जो खरीदे
मेरा मिजाज़,
मैं ज़ख्म बेचता
हूँ मोहब्बतके भावमें.......
6408
अब ना मैं हूँ ना बाकी हैं, ज़माने मेरे;
फिरभी मशहूर हैं, शहरोंमें फ़साने मेरे;
ज़िन्दगी हैं तो नए ज़ख्मभी लग जाएंगे...
अब भी बाकी हैं कई दोस्त पुराने मेरे.......
6409
एहसान किसीका वो रखते
नहीं,
मेरा भी लौटा
दिया...
जितना खाया था
नमक मेरा,
मेरे ही ज़ख्मोंपर
लगा दिया.......
6410
डालना अपने हाथोंसे,
कफन मेरी लाशपर...
की तेरे दिए ज़ख्मोंके तोहफे,
कोई और ना
देख लें.......