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19 May 2020

5891 - 5895 दिल ज़िंदगी सब्र उम्र गहराई बैचैन मेहँदी राज जुदाई ज़ख़्म दर्द शायरी



5891
दर्द--दिल,
कितना पसंद आया उसे...
मैने जब आह की,
उसने वाह की.......
                आसी ग़ाज़ीपुरी

5892
ये दिलका दर्द तो,
उम्रोंका रोग हैं प्यारे;
सो जाए भी तो,
पहर दोपहरको जाता हैं !
अहमद फ़राज़

5893
दर्द कागज़ पर मेरा, बिकता रहा,
मैं बैचैन था, रातभर लिखता रहा;
छू रहे थे सब, बुलंदियाँ आसमानकी,
मैं सितारोंके बीच, चाँदकी तरह छिपता रहा;
दरख़्त होता तो, कबका टूट गया होता,
मैं था नाज़ुक डाली, जो सबके आगे झुकता रहा;
बदले यहाँ लोगोंने रंग, अपने-अपने ढंगसे,
रंग मेरा भी निखरा पर, मैं मेहँदीकी तरह पीसता रहा;
ज़िनको जल्दी थी, वो बढ़ चले मंज़िलकी ओर,
मैं समन्दरसे, राज गहराईके सीखता रहा ll

5894
जुदायोंके ज़ख़्म,
दर्द--ज़िंदगीने भर दिए...
तुझे भी नींद गई,
मुझे भी सब्र गया....!
नासिर काज़मी

5895
दर्दको रहने भी दे.
दिलमें दवा हो जाएगी...
मौत आएगी तो,
हमदम शिफ़ा हो जाएगी...!
         हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा