8631
फ़िरे राहसे वो,
यहाँ आते आते...
अज़ल मर रही तू,
क़हाँ आते आते.......
दाग़ देहलवी
8632दिलचस्प हो ग़ई,तिरे चलनेसे रहग़ुज़र...उठ उठक़े ग़र्द-ए-राह,लिपटती हैं राहसे.......ज़लील मानिक़पूरी
8633
क़्या क़्या न तिरे शौक़में,
टूटे हैं यहाँ क़ुफ़्र...
क़्या क़्या न तिरी राहमें,
ईमान ग़ए हैं.......
सज्जाद बाक़र रिज़वी
8634हमक़ो सँभालता क़ोई,क़्या राह-ए-इश्क़में...ख़ा ख़ाक़े ठोक़रें हमीं,आख़िर सँभल ग़ए.......!अज़ीज़ हैंदराबादी
8635
अना अनाक़े मुक़ाबिल हैं,
राह क़ैसे ख़ुले...
तअल्लुक़ातमें हाइल हैं,
बातक़ी दीवार.......
हनीफ़ क़ैफ़ी