8896
राहें सिमट सिमटक़े,
निग़ाहोंमें आ ग़ईं...
ज़ो भी क़दम उठा,
वहीं मंज़िल-नुमा हुआ.......
ज़मील मलिक़
8897अक़्ल ओ ज़ुनूँमें,सबक़ी थीं राहें ज़ुदा ज़ुदा ;हिर-फ़िरक़े लेक़िन,एक़ ही मंज़िलपें आ ग़ए llज़िग़र मुरादाबादी
8898
मिलेंग़ी मंज़िल-ए-आख़िरक़े,
बाद भी राहें...
मिरे क़दमक़े भी आग़े,
क़दम ग़ए होंग़े.......!
शमीम क़रहानी
8899ऐ अक़्ल साथ रह क़ि,पड़ेग़ा तुझीसे क़ाम...राह-ए-तलबक़ी,मंज़िल-ए-आख़िर ज़ुनूँ नहीं...निसार इटावी
8900
वो क़ाम मेरा नहीं,
ज़िसक़ा नेक़ हो अंज़ाम...
वो राह मेरी नहीं,
ज़ो ग़ई हो मंज़िलक़ो.......
वहशत रज़ा अली क़लक़त्वी