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20 July 2022

8896 - 8900 निग़ाह क़दम अक़्ल आख़िर अंज़ाम ज़ुदा ज़ुनूँ मंज़िल शायरी

 

8896
राहें सिमट सिमटक़े,
निग़ाहोंमें ग़ईं...
ज़ो भी क़दम उठा,
वहीं मंज़िल-नुमा हुआ.......
                       ज़मील मलिक़

8897
अक़्ल ज़ुनूँमें,
सबक़ी थीं राहें ज़ुदा ज़ुदा ;
हिर-फ़िरक़े लेक़िन,
एक़ ही मंज़िलपें ग़ए ll
ज़िग़र मुरादाबादी

8898
मिलेंग़ी मंज़िल--आख़िरक़े,
बाद भी राहें...
मिरे क़दमक़े भी आग़े,
क़दम ग़ए होंग़े.......!
                         शमीम क़रहानी

8899
अक़्ल साथ रह क़ि,
पड़ेग़ा तुझीसे क़ाम...
राह--तलबक़ी,
मंज़िल--आख़िर ज़ुनूँ नहीं...
निसार इटावी

8900
वो क़ाम मेरा नहीं,
ज़िसक़ा नेक़ हो अंज़ाम...
वो राह मेरी नहीं,
ज़ो ग़ई हो मंज़िलक़ो.......
           वहशत रज़ा अली क़लक़त्वी