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19 November 2022

9401 - 9405 वक़्त ज़हाँ हुनर बात ज़वाँ पर्दा सुख़न शायरी

 

9401
घटा ज़ोर,
मश्क़--सुख़न बढ़ ग़ई...
ज़ईफ़ीने मुझक़ो,
ज़वाँ क़र दिया.......!

9402
क़िया था रेख़्ता,
पर्दा-सुख़नक़ा...
सो ठहरा हैं यहीं,
अब फ़न हमारा...
मीर तक़ी मीर

9403
सुनता हैं यहाँ क़ौन,
समझता हैं यहाँ क़ौन...?
ये शग़्ल--सुख़न,
वक़्त-ग़ुज़ारीक़े लिए हैं.......
                 अहमद सग़ीर सिद्दीक़ी

9404
रू--सुख़न हैं क़ीधर,
अहल--ज़हाँक़ा या रब...
सब मुत्तफ़िक़ हैं,
इसपर हर एक़क़ा ख़ुदा हैं...!
मीर तक़ी मीर

9405
ज़ब मीर मीरज़ाक़े,
सुख़न राएग़ाँ ग़ए...
इक़ बे-हुनरक़ी बात,
समझी ग़ई तो क़्या...
                 इफ़्तिख़ार आरिफ़