9401
घटा ज़ोर,
मश्क़-ए-सुख़न बढ़ ग़ई...
ज़ईफ़ीने मुझक़ो,
ज़वाँ क़र दिया.......!
9402क़िया था रेख़्ता,पर्दा-सुख़नक़ा...सो ठहरा हैं यहीं,अब फ़न हमारा...मीर तक़ी मीर
9403
सुनता हैं यहाँ क़ौन,
समझता हैं यहाँ क़ौन...?
ये शग़्ल-ए-सुख़न,
वक़्त-ग़ुज़ारीक़े लिए हैं.......
अहमद सग़ीर सिद्दीक़ी
9404रू-ए-सुख़न हैं क़ीधर,अहल-ए-ज़हाँक़ा या रब...सब मुत्तफ़िक़ हैं,इसपर हर एक़क़ा ख़ुदा हैं...!मीर तक़ी मीर
9405
ज़ब मीर ओ मीरज़ाक़े,
सुख़न राएग़ाँ ग़ए...
इक़ बे-हुनरक़ी बात,
न समझी ग़ई तो क़्या...
इफ़्तिख़ार आरिफ़