1781
मैं जहाँ हूँ, जिस हालमें हूँ ...
हर हालमें तुम्हारा हूँ .......
1782
देख लो,
बिछड़ गया ना वो मुझसे...
ज़माना अकेला मुझे देखनेको
तलबगार बहुत था.......
1783
शीशा टूटे और बिखर जाये,
वो बेहतर हैं...
दरारे ना जीने देती हैं,
ना मरने.......
1784
वो सजा भी नहीं देते,
और सजा ही देते हैं...
उनसे मोहोबत करनेका,
वो मजा लेते हैं.......
1785
बेहद हदें पार की थी,
हमने कभी किसीके लिए........
आज उसीने सिखा दिया,
हदमें रहना . . . . . . .