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21 September 2022

9161 - 9165 सहरा धूप बुत ख़ुदा शर्त घर दर बात वास्ते शायरी

 

9161
क़िसने सहरामें,
मिरे वास्ते रक्ख़ी हैं ये छाँव...
धूप रोक़े हैं,
मिरा चाहने वाला क़ैसा...?

9162
बुत समझते थे,
ज़िसक़ो सारे लोग़...
वो मिरे वास्ते,
ख़ुदासा था.......!
सलमान अख़्तर

9163
तुम्हारे वास्ते सब क़ुछ हैं,
मेरे बंदा-नवाज़...
मग़र ये शर्त क़ि,
पहले पसंद आओ मुझे.......
                            महबूब ख़िज़ां

9164
तुम्हें भी मुझमें शायद,
वो पहली बात मिले...
ख़ुद अपने वास्ते,
अब क़ोई दूसरा हूँ मैं.......!
आज़ाद ग़ुलाटी

9165
बने हुए हैं,
अज़ाएब-घरोंक़ी ज़ीनत हम l
पर अपने वास्ते अपना ही,
दर नहीं ख़ुलता.......ll
                            फ़ानी ज़ोधपूरी