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17 July 2022

8881 - 8885 सहरा मसर्रत बदन तक़लीफ़ राह राग़ तारीक़ी मोहब्बत मंज़िल शायरी

 

8881
उसीक़े राग़से गूंजेंग़े,
क़ल राहें मसर्रतक़ी...
ये माना आज़ इंसाँ,
मंज़िल--आह--फ़ुग़ाँमें हैं...
                         निहाल सेवहारवी

8882
मैं तेरी मंज़िल--जाँ तक़,
पहुँच तो सक़ता हूँ ;
मग़र ये राह,
बदनक़ी तरफ़से आती हैं !!!
इरफ़ान सिद्दीक़ी

8883
रहरव--राह--मोहब्बत,
रह ज़ाना राहमें,
लज़्ज़त--सहरा-नवर्दी,
दूरी--मंज़िलमें हैं.......ll
                   बिस्मिल अज़ीमाबादी

8884
तारीक़ीमें दीप ज़लाए,
इंसाँ क़ितना प्यारा हैं...l
राहें ढूँडे मंज़िल पाए,
इंसाँ क़ितना प्यारा हैं...ll
ओवेस अहमद दौराँ

8885
अबक़ी ज़ो राह--मोहब्बतमें,
उठाई तक़लीफ़ l
सख़्त होती हमें मंज़िल,
क़भी ऐसी तो थी ll
                          बहादुर शाह ज़फ़र