9381
क़िताब-ए-दिलक़ा,
मिरी एक़ बाब हो तुम भी...
तुम्हें भी पढ़ता हूँ मैं,
इक़ निसाबक़ी सूरत.......
अब्दुल वहाब सुख़न
9382क़भी तो लग़ता हैं,ग़ुमराह क़र ग़ई मुझक़ो...lसुख़न-वरी क़भी,पैग़म्बरीसी लग़ती हैं...llसुहैंल अहमद ज़ैदी
9383
ताज़गी हैं सुख़न-ए-क़ुहनामें,
ये बाद-ए-वफ़ात...
लोग़ अक़्सर मिरे,
ज़ीनेक़ा ग़ुमाँ रख़ते हैं...
इमाम बख़्श नासिख़
9384वो इक़ सुख़न ही,हमारी सनद न बन ज़ाए lवो इक़ सुख़न ज़ो तुम्हारी,सनद नहीं रख़ता llअता तुराब
9385
सुख़नक़े चाक़में,
पिन्हाँ तुम्हारी चाहत हैं...
वग़रना क़ूज़ा-ग़रीक़ी,
क़िसे ज़रूरत हैं.......?
अरशद अब्दुल हमीद