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10 November 2019

5006 - 5010 फ़ुर्सत आँखें शिकवा जरूरत दहलीज़ ख़्वाब ख़्वाहिश शायरी


5006
कभी जो फ़ुर्सत मिले,
तो मुड़कर देख लेना...
तुझे पानेकी ख़्वाहिश,
मुझे आज भी हैं.......!

5007
ख़्वाहिशोंका मोहल्ला बड़ा था,
हम जरूरतोंकी गलीसे मुड़ गये...

5008
जीनेकी ख़्वाहिश थी,
लेकिन अब नहीं है;
शिकवा भी तुमसे,
आखिर मैं क्यूँ करूं...?

5009
ख़्वाहिशें कम हो,
तो पत्थरों पर भी नींद जाती हैं;
वरना मखमल का बिस्तरभी,
चुभता हैं.......

5010
रात देर तक तेरी ख़्वाहिश,
बैठी रहीं आँखोंकी दहलीज़पर... 
खुद आना था तो कोई,
ख़्वाब ही भेज दिया होता...!