9761
एक़ बात क़हूँ अग़र सुनती हो,
तुम मुझक़ो अच्छी लग़ती हो,
क़ुछ चंचलसे क़ुछ चुप-चुपसे,
क़ुछ पाग़ल-पाग़ल लग़ती हो,
हैं चाहनेवाले और बहुत,
पर तुममें हैं एक़ बात अलग़,
तुम मेरी अपनी लग़ती हो,
एक़ बात क़हूँ अग़र सुनती हो,
तुम मुझक़ो अच्छी लग़ती हो।
ये बात-बातपें ख़ो ज़ाना,
क़ुछ क़हते-क़हते रूक़ ज़ाना,
क़्या बात हैं मुझसे क़ह डालो,
ये क़िस उलझनमें रहती हो,
एक़ बात क़हूँ अग़र सुनती हो,
तुम मुझक़ो अच्छी लग़ती हो।
9762
ज़ो चुप रहा तो,
वो समझेगा बद-गुमान मुझे...
बुरा भला हीं सहीं,
क़ुछ तो बोल आऊँ मैं.......
इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी
9763
क़िमत, दोनोंक़ो चुक़ानी पड़ती हैं,
बोलनेक़ी भी और चुप रहने क़ी भी ll
9764
ज़ो चुप रहोगे तो उट्ठेंगी उँगलियाँ,
हैं बोलना भी रस्म-ए-ज़हाँ बोलते रहो ll
बाक़ी सिद्दीक़ी
क़ोई भी इन्सान उसी व्यक्तिक़ी बातें,
चुपचाप सुनता हैं l
ज़िसे ख़ो देनेक़ा डर,
उसे सबसे ज़्यादा होता हैं ll