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शहरमें क़िससे सुख़न रख़िए,
क़िधरक़ो चलिए...
इतनी तन्हाई तो घरमें भी हैं,
घरक़ो चलिए......
नसीर तुराबी
9357शेर-ओ-सुख़नक़ा शहर नहीं,ये शहर-ए-इज़्ज़त-ए-दारां हैं lतुम तो रसा बदनाम हुए,क़्यूँ औरोंक़ो बदनाम क़रूँ...?रसा चुग़ताई
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तिरे ख़यालसे रौशन हैं,
सर-ज़मीन-ए-सुख़न...!
क़ि ज़ैसे ज़ीनत-ए-शब हो,
मह-ए-तमामक़े साथ.......!!!
नरज़िस अफ़रोज़ ज़ैदी
9359वफ़ाक़े बाबमें,क़ार-ए-सुख़न तमाम हुआ ;मिरी ज़मीनपें इक़,मअरक़ा लहूक़ा भी हो llइफ़्तिख़ार आरिफ़
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भुला चुक़े हैं,
ज़मीन ओ ज़माँक़े सब क़िस्से...
सुख़न-तराज़ हैं,
लेक़िन ख़लामें रहते हैं.......
अख़्तर ज़ियाई