6066
ये शाख काटी, वो शाख काटी,
इसे उजाड़ा, उसे उजाड़ा;
यही हैं शेवा जो बागबाँका,
तो हम गुलिस्ताँसे जा रहे हैं...
नफीस सन्देलवी
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सुनते हैं कि क़ाँटोंसे
गुलतक,
हैं राहमें लाखों
वीराने...
कहता हैं मगर यह
अज्मे-जुनू,
सहरासे गुलिस्ताँ
दूर नहीं...!
6068
जमाना जो आतिशफिशाँ हैं,
तो क्या गम...
हम आतिशकदेको,
गुलिस्ताँ करेंगे.......!
शकील बदायुनी
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इस नये दौरमें देखे
हैं वो रहजन मैंने,
जो बहारोंको गुलिस्ताँसे
चुरा ले जाए l
दे निगाहोंको जो
धोखा तो पता भी न चले,
चाँदनी अंजुमें
ताबाँसे उठा ले जाए l
इलाही आबरू रखना
बड़ा नाजुक जमाना हैं,
दिलोंमें बुग्ज
रहता हैं बजाहिर दोस्ताना हैं ll
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हमने अपने आशियाँके वास्ते,
जो चुभें दिलमें वही कांटे चुने...
रियाज खेराबादी