6751
चंद मासूमसे पत्तोंका,
लहू हैं फ़ाकिर...
जिसको महबूबके हाथोंकी,
हिना कहते हैं.......
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सुर्ख़-रू होता
हैं,
इंसाँ ठोकरें खानेके
बाद...
रंग लाती हैं हिना,
पत्थरपें पिस जानेके
बाद...!
पूछे जो कोई मेरी निशानी,
रंग हिना लिखना;
आऊं तो सुबह,
जाऊ तो मेरा नाम सबा लिखना;
बर्फ पड़े तो,
बर्फपें मेरा नाम दुआ लिखना...!!!
गुलज़ार
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मिटा सकी न उन्हें,
रोज़ ओ शबकी बारिश
भी...
दिलोंपें नक़्श
जो,
रंग-ए-हिनाके रक्खे
थे...
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उसकी मंजिल भी वही,
रास्ते भी वही...
उसने बदला तो बस,
हमसफ़र बदला.......