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20 March 2020

5631 - 5635 नीलाम दास्ताँ कमबख्त ख़्वाहिश खातिर इंतिज़ार दिल्लगी वफ़ा शायरी


5631
नीलाम कुछ इस कदर हुए,
बाज़ार--वफ़ामें हम आज...
बोली लगाने वाले भी वही थे,
जो कभी झोली फैलाकर,
माँगा करते थे हमींसे...


5632
मेरी दास्ताँ--वफ़ा,
बस इतनी सी हैं...
उसकी खातिर,
उसीको छोड़ दिया...

5633
इच्छाएँ बड़ी बेवफ़ा होती हैं,
कमबख्त पूरी होते ही...
बदल जाती हैं.......

5634
वफ़ा कर तो,
हमारी वफ़ाकी दाद ही दे...
तिरे फ़िराक़को हम,
इंतिज़ार कहते हैं...
रशीद कौसर फ़ारूक़ी

5635
जाने कैसी दिल्लगी थी,
उस बेवफासे.......
कि मैने आखिरी ख़्वाहिशमें भी,
उसकी फ़ा मांगी.......!