6241
निकलकर दैर-ओ-काबासे,
अगर मिलता न मय-ख़ाना...
तो ठुकराए हुए इंसाँ,
ख़ुदा जाने कहाँ जाते.......
क़तील शिफ़ाई
6242
ज़ौक़ जो मदरसेके.
बिगड़े हुए हैं
मुल्ला l
उनको मय-ख़ानेमें.
ले आओ सँवर
जाएँगे ll
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
6243
कहाँ मय-ख़ानेका दरवाज़ा ग़ालिब,
और कहाँ वाइज़...
पर इतना जानते हैं,
कल वो जाता था कि हम निकले...
मिर्ज़ा ग़ालिब
6244
एक ऐसी भी
तजल्ली,
आज मय-ख़ाने
में हैं...
लुत्फ़ पीनेमें नहीं हैं,
बल्कि खो जाने
में हैं...!
असग़र गोंडवी
6245
अब तो उतनी भी,
मयस्सर नहीं मय-ख़ानेमें...
जितनी हम छोड़ दिया करते थे,
पैमानेमें.......!!!
दिवाकर राही