28 July 2020

6241 - 6245 पैमाने मयस्सर लुत्फ़ मय शायरी


6241
निकलकर दैर--काबासे,
अगर मिलता मय-ख़ाना...
तो ठुकराए हुए इंसाँ,
ख़ुदा जाने कहाँ जाते.......
                           क़तील शिफ़ाई

6242
ज़ौक़ जो मदरसेके.
बिगड़े हुए हैं मुल्ला l
उनको मय-ख़ानेमें.
ले आओ सँवर जाएँगे ll
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

6243
कहाँ मय-ख़ानेका दरवाज़ा ग़ालिब,
और कहाँ वाइज़...
पर इतना जानते हैं,
कल वो जाता था कि हम निकले...
                                      मिर्ज़ा ग़ालिब

6244
एक ऐसी भी तजल्ली,
आज मय-ख़ाने में हैं...
लुत्फ़ पीनेमें नहीं हैं,
बल्कि खो जाने में हैं...!
असग़र गोंडवी

6245
अब तो उतनी भी,
मयस्सर नहीं मय-ख़ानेमें...
जितनी हम छोड़ दिया करते थे,
पैमानेमें.......!!!
                                   दिवाकर राही

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