19 July 2020

6196 - 6200 दिल हसरत गुलफ़ाम लब बोसे शायरी


6196
बोसे अपने,
आरिज़--गुलफ़ामके...!
ला मुझे दे दे,
तिरे किस कामके.......!

6197
धमकाके बोसे लूँगा,
रुख़-ए-रश्क-ए-माहका...
चंदा वसूल होता हैं साहब,
दबावसे.......
अकबर इलाहाबादी

6198
बुझे लबोंपें हैं,
बोसोंकी राख बिखरी हुई;
मैं इस बहारमें,
ये राख भी उड़ा दूँगा...ll
                        साक़ी फ़ारुक़ी

6199
जिस लबके ग़ैर बोसे लें,
उस लबसे शेफ़्ता...
कम्बख़्त गालियाँ भी,
नहीं मेरे वास्ते.......
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

6200
दिल-लगीमें हसरत--दिल,
कुछ निकल जाती तो हैं...
बोसे ले लेते हैं हम,
दो-चार हँसते बोलते.......!
                    अमीरुल्लाह तस्लीम

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