6196
बोसे अपने,
आरिज़-ए-गुलफ़ामके...!
ला मुझे दे दे,
तिरे किस कामके.......!
6197
धमकाके बोसे लूँगा,
रुख़-ए-रश्क-ए-माहका...
चंदा वसूल होता हैं साहब,
दबावसे.......
अकबर इलाहाबादी
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बुझे लबोंपें हैं,
बोसोंकी राख बिखरी हुई;
मैं इस बहारमें,
ये राख भी उड़ा दूँगा...ll
साक़ी फ़ारुक़ी
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जिस लबके ग़ैर
बोसे लें,
उस लबसे शेफ़्ता...
कम्बख़्त
गालियाँ भी,
नहीं मेरे वास्ते.......
मुस्तफ़ा
ख़ाँ शेफ़्ता
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दिल-लगीमें हसरत-ए-दिल,
कुछ निकल जाती तो हैं...
बोसे ले लेते हैं हम,
दो-चार हँसते बोलते.......!
अमीरुल्लाह
तस्लीम
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