31 July 2020

6256 - 6260 जन्नत ज़िंदगी होश रहमत कर्ज मय शायरी


6256
दिन रात मय-कदेमें,
गुज़रती थी ज़िंदगी...
अख़्तर वो बे-ख़ुदीके,
ज़माने किधर गए...
               अख़्तर शीरानी

6257
तेरी मस्जिदमें वाइज़,
ख़ास हैं औक़ात रहमतके...
हमारे मय-कदेमें रात दिन,
रहमत बरसती हैं.......
अमीर मीनाई

6258
मय-कदेकी तरफ़,
चला ज़ाहिद...
सुब्हका भूला,
शाम घर आया...
               कलीम आजिज़

6259
न तुम होशमें हो,
न हम होशमें हैं...
चलो मय-कदेमें,
वहीं बात होगी...!
बशीर बद्र

6260
कर्जकी पीते थे मय,
लेकिन समझते थे कि हाँ...
रंग लायेगी हमारी,
फाकामस्ती एक दिन.......
           मिर्जा गालिब

No comments:

Post a Comment