6206
शामका वक्त हो,
और शराब ना हो...
इंसानका वक्त,
इतना भी खराब ना हो...!
6207
थोड़ा गम मिला
तो घबराके पी
गए,
थोड़ी ख़ुशी मिली तो
मिलाके पी गए;
यूँ तो हमें
न थी ये
पीनेकी आदत,
शराबको तनहा देखा
तो तरस खाके
पी गए ll
6208
नशा हम किया करते हैं,
इलज़ाम शराबको दिया करते हैं,
कसूर शराबका नहीं उनका हैं,
जिनका चहेरा हम ज़ाममें,
तलाश किया करते हैं ll
6209
मैंने तो छोड़
दी थी पर,
रोने लगी शराब...
मैं उसके आँसूओंपें,
तरस खाके पी
गया.......
6210
पहले शराब ज़ीस्त थी,
अब ज़ीस्त हैं शराब...
कोई पिला रहा हैं,
पिए ज़ा रहा हूँ मैं.......!
जिगर मुरादाबादी
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