6156
बे-ज़री फ़ाक़ा-कशी,
मुफ़लिसी बे-सामानी;
हम फ़क़ीरोंके भी,
हाँ कुछ नहीं और सब कुछ हैं !
नज़ीर अकबराबादी
6157
मुफ़लिसी
सब बहार खोती
हैं,
मर्दका ऐतिबार खोती हैं.......
वली मोहम्मद वली
6158
मुफ़लिसोंकी ज़िंदगीका,
ज़िक्र क्या.......
मुफ़लिसीकी मौत भी,
अच्छी नहीं.......
रियाज़ ख़ैराबादी
6159
घरकी दीवारपें,
कौवे नहीं अच्छे
लगते...
मुफ़लिसीमें
ये तमाशे,
नहीं अच्छे लगते.......
6160
कहीं बेहतर हैं,
तेरी अमीरीसे मुफलिसी मेरी;
चंद सिक्कोंकी खातिर तूने,
क्या नहीं खोया हैं;
माना नहीं हैं,
मखमलका बिछौना मेरे पास;
पर तू ये बता,
कितनी रातें चैनसे सोया
हैं...!
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