6181
बदनका सारा लहू,
खिंचके आ गया रुख़पर...
वो एक बोसा,
हमें देके सुर्ख़-रू हैं बहुत...!
ज़फ़र इक़बाल
6182
बोसा आँखोंका जो माँगा,
तो वो हँस
कर बोले,
देख लो दूरसे
खानेके,
ये बादाम नहीं.......!
अमानत लखनवी
6183
बोसा कैसा,
यही ग़नीमत हैं...
कि न समझे वो,
लज़्ज़त-ए-दुश्नाम...
मिर्ज़ा ग़ालिब
6184
क्या ख़ूब तुमने,
ग़ैरको बोसा नहीं
दिया...
बसचुप रहो हमारे
भी,
मुँहमें
ज़बान हैं.......
मिर्ज़ा ग़ालिब
6185
बोसा जो तलब मैंने किया,
हँसके वो बोले,
ये हुस्नकी दौलत हैं,
लुटाई नहीं जाती.......!
No comments:
Post a Comment