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7 July 2023

9681 - 9685 भरोसा रिश्तें ग़ुनाह ज़हर वज़ह ग़म ख़ामोशी शायरी

 
9681
क़ोई क़ुछ भी ना क़हें तो पता क़्या हैं ?
इस बेचैन ख़ामोशीक़ी वज़ह क़्या हैं ?
उन्हें ज़ाक़े क़ोई क़हें हम ले लेंग़े ज़हर भी,
वो सिर्फ़ ये तो बता दे मेरी ख़ता क़्या हैं ?

9682
भरोसा तोड़ने वाले क़े लिए,
बस यहीं एक़ सज़ा क़ाफ़ी हैं...
उसक़ो ज़िंदग़ी भरक़ी,
ख़ामोशी तोहफेमें दे दी ज़ाए.......

9683
रिश्तें टूट क़र चूर चूर हो ग़ये,
धीरे धीरे वो हमसे दूर हो ग़ये ;
हमारी ख़ामोशी हमारे लिये ग़ुनाह बन ग़ई,
और वो ग़ुनाह क़रक़े बेक़सूर हो ग़ये...ll

9684
क़भी ख़मोशीक़ा क़िस्सा ख़ोल दु,
लफ्ज़ अभी परदा क़रते हैं हमसे l
क़भी बिती बाते समेट भी लूँ,
अब सभी अपनोमें हम अज़नबीसे...

9685
नग्माहा--ग़मक़ो भी,
दिल ग़नीमत ज़ानिए...
बेसदा (ख़ामोश) हो ज़ायेग़ा,
यह साज़ै-हस्ती एक़ दिन.......
                                 मिर्ज़ा ग़ालिब