6746
मैं वो साग़र
नहीं,
आए कभी लब तक जो रियाज़...!
किसको मिलता हैं,
तिरे रंग-ए-हिनाका बोसा.......!!!
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शामिल हैं मेरा ख़ून-ए-जिगर,
तेरी हिनामें...
ये कम हो तो अब,
ख़ून-ए-वफ़ा साथ लिए जा...
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ये भी नया सितम हैं,
हिना तो लगाए ग़ैर...
और दाद उसकी चाहें,
वो मुझको दिखाके हाथ...
आए कभी लब तक जो रियाज़...!
किसको मिलता हैं,
तिरे रंग-ए-हिनाका बोसा.......!!!
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काँचके पार तिरे,
हाथ नज़र आते
हैं...
काश ख़ुशबूकी तरह,
रंग हिनाका होता.......
गुलज़ार
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शामिल हैं मेरा ख़ून-ए-जिगर,
तेरी हिनामें...
ये कम हो तो अब,
ख़ून-ए-वफ़ा साथ लिए जा...
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इक सुब्ह थी जो,
शाममें तब्दील हो गई;
इक रंग हैं
जो,
रंग-ए-हिना
हो नहीं रहा...
काशिफ़ हुसैन
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ये भी नया सितम हैं,
हिना तो लगाए ग़ैर...
और दाद उसकी चाहें,
वो मुझको दिखाके हाथ...
निज़ाम रामपुरी