9991
हर शख़्सक़ो ग़ुमानक़ी,
मंज़िल नहीं हैं दूर...
ये तो बताइएक़ी,
पिता क़िसक़े पास हैं...!
बद्र वास्ती
9992
क़हाँ रह ज़ाए थक़क़र,
रह-नवर्द-ए-ग़म ख़ुदा ज़ाने l
हज़ारों मंज़िलें हैं,
मंज़िल-ए-आराम आने तक़ ll
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
9993
ग़र्म-ए-सफ़र हैं ग़र्म-ए-सफ़र,
रह मुड़ मुड़क़र मत पीछे देख़ l
एक़ दो मंज़िल साथ चलेग़ी,
पटक़े हुए क़दमोंक़ी चाप ll
अहसन शफ़ीक़
9994
उक़ाबी रूह ज़ब,
बेदार होती हैं ज़वानोंमें l
नज़र आती हैं उनक़ो,
अपनी मंज़िल आसमानोंमें !
अल्लामा इक़बाल
9995
रह-ए-तलबमें,
क़िसे आरज़ू-ए-मंज़िल हैं l
शुऊर हो तो सफ़र,
ख़ुद सफ़रक़ा हासिल हैं ll
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ