9336
क़ुछ हर्फ़ ओ सुख़न,
पहले तो अख़बारमें आया...
फ़िर इश्क़ मिरा,
क़ूचा ओ बाज़ारमें आया...
इरफ़ान सिद्दीक़ी
9337या उन्हें आती नहीं,बज़्म-ए-सुख़न-आराई...या हमें बज़्मक़े,आदाब नहीं आते हैं...रम्ज़ी असीम
9338
दस बारा ग़ज़लियात,
ज़ो रख़ता हैं ज़ेबमें...
बज़्म-ए-सुख़नमें हैं,
वो निशानी वबालक़ी.......
अज़ीज़ फ़ैसल
9339क़िसने बेचा नहीं,सुख़न अपना...क़ौन बाज़ारतक़,नहीं पहुँचा.......अज़य सहाब
9340
सौग़ंद हैं हसरत मुझे,
एज़ाज़-ए-सुख़नक़ी...
ये सेहर हैं ज़ादू हैं,
न अशआर हैं तेरे.......
हसरत अज़ीमाबादी