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20 June 2017

1421 - 1425 दिन दर्द बारिश ख़ुशियाँ अकेले भीड़ गुज़र ख़्याल फुरसत बेवजह आसमान इंतज़ार मुस्कुरा यकीन बात शायरी


1421
दर्दकी बारिशोंमें हम अकेले ही थे,
जब बरसी ख़ुशियाँ . . .
न जाने भीड़ कहाँसे आ गई.......

1422
गुज़र गया आजका दिन भी,
युँ ही बेवजह...
ना मुझे फुरसत मिली...,
ना तुझे ख़्याल आया...!

1423
आज समानके तारोंने मुझे पूछ लिया;
क्या तुम्हें अब भी इंतज़ार हैं उसके लौट आनेका!
मैने मुस्कुराकर कहां;
तुम लौट आनेकी बात करते हो;
मुझे तो अब भी यकीन नहीं उसके जानेका !

1424
ख़्वाब ही ख़्वाब,
कब तलक देखूँ,
अब दिल चाहता हैं,
तुझको भी इक झलक देखूँ !

1425
खुदको लिखते हुए,
हर बार लिखा हैं 'तुमको'
इससे ज्यादा कोई,
जिंदगीको क्या लिखता !!