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बहार आते ही टकराने लगे,
क्यूँ साग़र ओ मीना...
बता ऐ पीर-ए-मय-ख़ाना,
ये मय-ख़ानोंपे क्या गुज़री...
जगन्नाथ आज़ाद
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फितरतके
हसीं नज्जारोंमें,
पुरकैफ खजाने और भी
हैं...
मय-खाना अगर
वीराँ है तो
क्या,
रिन्दोंके
ठीकाने और भी
हैं.......
शकील बदायुनी
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रूह किस मस्तकी,
प्यासी गई मय-ख़ानेसे...
मय उड़ी जाती हैं,
साक़ी तिरे पैमानेसे...!
दाग़ देहलवी
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ये कह दो
हज़रत-ए-नासेहसे,
गर समझाने आए हैं;
कि हम दैर
ओ हरम होते
हुए,
मय-ख़ाने आए हैं ll
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मैं मय-कदे की राहसे,
होकर निकल गया l
वर्ना सफ़र हयातका,
काफ़ी तवील था ll
अब्दुल हमीद अदम