1841
सीख रहा हूँ मैं भी अब,
मीठे झूठ बोलनेकी अदा,
कड़वे सचने हमसे,
जाने कितने अजीज़ छीन लिए...
1842
शायरीमें सिमटते कहाँ हैं,
दिलके दर्द दोस्तो.......
बहला रहे हैं खुदको,
जरा आप लोगोंके साथ.......
1843
बेख़बर हो गये हैं कुछ लोग,
जो हमारी ज़रूरत तक महसूस नहीं करते,
कभी बहुत बातें किया करते थे हमसे,
अब ख़ैरियत तक पूछा नहीं करते..
1844
ज़िन्दगीसे यहीं गिला हैं मुझे...
तू बहुत देरसे मिला हैं मुझे,
दिल धडकता नहीं सुलगता हैं...
क्या गंवाया हैं, क्या मिला हैं मुझे...
1845
जैसा मूड़ हो,
वैसा मंजर होता हैं...
मौसम तो,
इंसानके अंदर होता हैं...!
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