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15 July 2020

6176 - 6180 दिल जिन्दगी जमाने खामोश होठ गम आस आँखें आँसू दर्द बदन बोसे तबस्सुम शायरी


6176
मेरे दर्दमें निहाँ हैं,
वह निशातेजाविदानी...
कि निचोड़ दू जो आहें,
तो टपक पड़े तबस्सुम...
                नाजिश प्रतापगढ़ी

6177
अभी आस टूटी नहीं हैं खुशीकी,
अभी गम उठानेको जी चाहता हैं...
तबस्सुम हो जिसमें निहाँ जिन्दगीका,
वह आँसू बहानेको जी चाहता हैं.......
अदीब मालीगाँवी

6178
जिसके होठोंपें तबस्सुम हैं, मगर आँखें नम हैं;
उसने गम अपना जमानेसे छुपाया होगा l
जुबां खामोश हैं, लेकिन मेरी आँखोंमें लिखा हैं,
कि हाले-दिल पढ़ा जाता हैं, बतलाया नहीं जाता ll

6179
समझती हैं मआले-गुल,
मगर क्या जोरे-फितरत हैं...
सहर आते ही कलियोंपर,
तबस्सुम आ ही जाता हैं...!

6180
एक बोसा होंटपर फैला,
तबस्सुम बन गया...
जो हरारत थी मिरी,
उसके बदनमें गई.......!
                       काविश बद्री