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मेरे दर्दमें निहाँ हैं,
वह निशाते–जाविदानी...
कि निचोड़ दू जो आहें,
तो टपक पड़े तबस्सुम...
नाजिश प्रतापगढ़ी
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अभी आस टूटी
नहीं हैं खुशीकी,
अभी गम उठानेको
जी चाहता हैं...
तबस्सुम
हो जिसमें निहाँ
जिन्दगीका,
वह आँसू बहानेको
जी चाहता हैं.......
अदीब मालीगाँवी
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जिसके होठोंपें तबस्सुम हैं, मगर आँखें नम हैं;
उसने गम अपना जमानेसे छुपाया होगा l
जुबां खामोश हैं, लेकिन मेरी आँखोंमें लिखा हैं,
कि हाले-दिल पढ़ा जाता हैं, बतलाया नहीं जाता ll
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समझती हैं मआले-गुल,
मगर क्या जोरे-फितरत हैं...
सहर आते ही
कलियोंपर,
तबस्सुम
आ ही जाता
हैं...!
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एक बोसा होंटपर फैला,
तबस्सुम बन गया...
जो हरारत थी मिरी,
उसके बदनमें आ गई.......!
काविश बद्री