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19 August 2022

9006 - 9010 मंज़िल क़ारवाँ कांटे ज़िन्दग़ी रहज़न शायरी

 

9006
रहबर या तो रहज़न निक़ले या हैं,
अपने आपमें ग़ुम...
क़ाफ़ले वाले क़िससे पूछें,
क़िस मंज़िल तक़ ज़ाना हैं...
                                 अर्श मल्सियानी

9007
बफैज़ै-मस्लेहत,
ऐसा भी होता हैं ज़मानेमें...
क़ि रहज़नक़ो अमीरे-क़ारवाँ,
क़हना हीं पड़ता हैं...
ज़नग़न्नाथ आज़ाद

9008
मतलबपरस्त दुनिया,
बदज़न बना ग़ई हैं...l
रहज़नक़ा अब ग़ुमाँ हैं,
हर अपने हमनशींपर...ll
                       शौक़त थानवी

9009
हमक़ो राहें-ज़िन्दग़ीमें,
इस क़दर रहज़न मिले...
रहनुमापर भी,
ग़ुमानेरहनुमा होता नहीं...
अर्श मल्सियानी

9010
अपने वो रहनुमा हैं क़ि,
मंज़िल तो दरक़नार...
कांटे रहें तलबमें,
बिछाते चले ग़ए.......
                 असर लख़नवी