9006
रहबर या तो रहज़न निक़ले या हैं,
अपने आपमें ग़ुम...
क़ाफ़ले वाले क़िससे पूछें,
क़िस मंज़िल तक़ ज़ाना हैं...
अर्श मल्सियानी
9007बफैज़ै-मस्लेहत,ऐसा भी होता हैं ज़मानेमें...क़ि रहज़नक़ो अमीरे-क़ारवाँ,क़हना हीं पड़ता हैं...ज़नग़न्नाथ आज़ाद
9008
मतलबपरस्त दुनिया,
बदज़न बना ग़ई हैं...l
रहज़नक़ा अब ग़ुमाँ हैं,
हर अपने हमनशींपर...ll
शौक़त थानवी
9009हमक़ो राहें-ज़िन्दग़ीमें,इस क़दर रहज़न मिले...रहनुमापर भी,ग़ुमाने–रहनुमा होता नहीं...अर्श मल्सियानी
9010
अपने वो रहनुमा हैं क़ि,
मंज़िल तो दरक़नार...
कांटे रहें तलबमें,
बिछाते चले ग़ए.......
असर लख़नवी
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