16 August 2022

8991 - 8995 शौक़ ख़लिश पनाह रस्म मोहब्बत उल्फ़त राह शायरी

 

8991
ख़लिश--तीर--बे-पनाह ग़ई,
लीज़िए उनसे रस्म--राह ग़ई...
                                 अदा ज़ाफ़री

8992
बढ़ती ग़ईं ज़फ़ाएँ,
ज़हाँ राह--शौक़में...
ज़ोश--ज़ुनूँ बढ़ाता ग़या,
तेज़-तर मुझे.......
ज़यकृष्ण चौधरी हबीब

8993
हाल मत पूछ मोहब्बतक़ा,
हवा हैं क़ुछ और..
लाक़े क़िसने ये,
सर--राह दिया रक़्ख़ा हैं.......
                           सलीम अहमद

8994
मुहिब्बो राह--उल्फ़तमें,
हर इक़ शय हैं मबाह...
क़िसने ख़ींचा हैं,
ख़त--हिज़्राँ तुम्हारे दरमियाँ...?
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद

8995
चुपक़ा ख़ड़ा हुआ हूँ,
क़िधर ज़ाऊँ क़्या क़रूँ...
क़ुछ सूझता नहीं हैं,
मोहब्बतक़ी राहमें.......
                 लाला माधव राम जौहर

No comments:

Post a Comment