6311
जला हैं शहर तो क्या,
कुछ न कुछ तो हैं महफ़ूज़...
कहीं ग़ुबार,
कहीं रौशनी सलामत हैं...!
फ़ज़ा इब्नएफ़ैज़ी
6312
कारगाहे
हयातमें,
यह हकीकत मुझे नजर
आई...
हर उजालेमें तीरगी देखी,
हर अंधेरेमें रौशनी पाई.......!
जिगर मुरादाबादी
6313
इन्सानियतकी रौशनी,
गुम हो गई कहाँ...
साए हैं आदमीके,
मगर आदमी कहाँ.......
6314
न खिजाँमें हैं कोई
तीरगी,
न बहारमें कोई रौशनी...
ये नजर-नजरके
चराग हैं,
कहीं जल गये
कहीं बुझ गये...
शायर लखनवी
6315
घरसे बाहर नहीं निकला जाता,
रौशनी याद दिलाती हैं तिरी.......!
फ़ुज़ैल
जाफ़री