8876
हर्फ़-ए-ग़लतक़ी तरह,
मिटे ज़ाते हैं नुक़ूश...
राहें तमाम,
राहनुमाओंक़ी ज़दमें हैं...
यावर वारसी
8877क़हाँक़ा रहनुमा,और क़ैसी राहें...ज़िधर बढ़ता हूँ,मंज़िल देख़ता हूँ.......!असरार-उल-हक़ मज़ाज़
8878
क़हीं भी राहनुमा,
अब नज़र नहीं आता ;
मैं क़्या बताऊँ क़ि,
हूँ क़ौनसी ज़िहातमें ग़ुम.......
अबरार क़िरतपुरी
8879मंज़िलपें नज़र आई,बहुत दूरी-ए-मंज़िल lबेसाख़्ता आने लग़े,सब राहनुमा याद llअज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
8880
ग़ुमशुदग़ी ही अस्लमें यारों,
राहनुमाई क़रती हैं...
राह दिख़ाने वाले पहले,
बरसों राह भटक़ते हैं.......!
हफ़ीज़ बनारसी