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16 July 2022

8876 - 8880 हर्फ़ ग़लत मंज़िल नज़र ग़ुमशुदग़ी राहनुमा शायरी

 

8876
हर्फ़--ग़लतक़ी तरह,
मिटे ज़ाते हैं नुक़ूश...
राहें तमाम,
राहनुमाओंक़ी ज़दमें हैं...
                         यावर वारसी

8877
क़हाँक़ा रहनुमा,
और क़ैसी राहें...
ज़िधर बढ़ता हूँ,
मंज़िल देख़ता हूँ.......!
असरार-उल-हक़ मज़ाज़

8878
क़हीं भी राहनुमा,
अब नज़र नहीं आता ;
मैं क़्या बताऊँ क़ि,
हूँ क़ौनसी ज़िहातमें ग़ुम.......
                  अबरार क़िरतपुरी

8879
मंज़िलपें नज़र आई,
बहुत दूरी--मंज़िल l
बेसाख़्ता आने लग़े,
सब राहनुमा याद ll
अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ

8880
ग़ुमशुदग़ी ही अस्लमें यारों,
राहनुमाई क़रती हैं...
राह दिख़ाने वाले पहले,
बरसों राह भटक़ते हैं.......!
                          हफ़ीज़ बनारसी