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3 July 2017

1461 - 1465 जिंदगी मोहब्बत शहर तमाम इज्जतदार बदनाम आत्मकथा फर्क परख यकीन पूरे अधूरे खुदखुशी शायरी


1461
शहरके तमाम इज्जतदारोंने,
करली खुदखुशी ।
जब एक बदनाम औरतने,
आत्मकथा लिखनी चाही अपनी ।।

1462
"बड़ा फर्क हैं,
तेरी और मेरी मोहब्बतमें...
तू परखती रहीं, और ...
हमने जिंदगी यकीनमें गुजार दी..."

1463
बिन उनके,
यूँ तो हम अधूरे नहीं हैं.....!!
पर जाने फ़िर भी क्यूँ...
हम पूरे भी नहीं हैं.......!!

1464
बड़ी तब्दीलियाँ लाया हूँ,
अपने आपमें लेकिन,
बस तुमको याद करनेकी,
वो आदत अब भी हैं...

1465
हमारे दिलके दफ़्तरमें,
तबादले कहाँ हुज़ूर...?
यहाँ जो एक बार आया,
बस यहीं रह गया…