9416
ज़ालिम थी वो और,
ज़ुल्मक़ी आदत भी बहुत थी...
मज़बूर थे हम उससे,
मोहब्बत भी बहुत थी.......
क़लीम आज़िज़
9417
ज़ब दूर ज़ाना ही था तो पास क़्यों आये,
ज़ब दिल तोडना ही था तो दिल क़्यों लगाये...
यूँ बहाना क़्यों बनाते हो पास ना आनेक़ा,
रुक़स्त ही रहना है तो दिलमें आश क़्यों बंधाये...
9418
ख़ुशी मुबारक़ हो तुमक़ो ओ महबूबा,
उदासी अब मेरी इक़ पेहचान बन गई l
तेरी बेवफ़ाई ओ ज़ालिम आज़,
तेरे इस आशिक़क़ी यही इक़ पेहचान बन गई ll
9419
देख़ना ज़ालिम एक़ दिन इतना दूर चला ज़ाऊंगा,
आवाज़ लगाओगी तो भी लौट क़र ना आऊंगा...l
देख़ा तेरा प्यार देख़ी तेरी वफ़ादारी,
ज़ब मेरा मूख़ देख़ोगी तो क़फ़न ओढ़क़र सो ज़ाऊंगा...ll
9420
क़ाश ये ज़ालिम ज़ुदाई ना होती,
ऐ ख़ुदा तूने ये चीज़ बनाई ना होती...
ना हमे वह मिलते ना प्यार होता,
अपनी ज़िन्दगी ज़ो थी वो आज़ पराई ना होती...
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