17 August 2017

1671 - 1675 याद क़ैद रिहा जान अजीज़ आदत सादगी जाहिल इल्ज़ाम तमाशा शायरी


1671
कौन चाहता हैं रिहा होना,
उनकी यादोंसे...,
ये तो वो क़ैद हैं जो,
जानसे ज़्यादा अजीज़ हैं...!!!

1672
अपनी आदत नहीं हैं,
पुरानी चींजे बदलनेकी...
हम सादगीपें मरने वाले,
जाहिल लोग हैं.......

1673
अगर कहो तो आज बता दूँ,
मुझको तुम कैसी लगती हो l
मेरी नहीं मगर जाने क्यों,
कुछ कुछ अपनीसी लगती हो ll

1674
इल्ज़ाम तेरे सरपें,
तराशा नहीं करते l
चुपचाप ही रोते हैं,
तमाशा नहीं करते.......ll

1675
ना उसने मुड़कर देखा ;
ना हमने पलटकर आवाज दी,
अजीबसा वक्त था जिसने;
दोनोंको पत्थर बना दिया.......

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