1896
तफ़्सील-ए-इनायात तो,
अब याद नहीं हैं;
पर पहली मुलाक़ातकी,
शब याद हैं मुझको
1897
उफ्फ तौबा...
ये मोहब्बतके किस्से
किसीके पूरे...
किसीके अधूरे.......
1898
तेरी पलकोंमें रहने दे,
रात भरके लिये,
मैं तो इक ख्वाब हूँ,
सुबह होते ही चला जाऊँगा...
1899
उल्फतका अक्सर यहीं दस्तूर होता हैं,
जिसे चाहो वही अपनेसे दूर होता हैं,
दिल टूटकर बिखरता हैं इस कदर...
जैसे कोई काँचका खिलौना चूर-चूर होता हैं !
1900
बहकनेके लिए,
तेरा एक खयाल काफी हैं सनम...
हाथोमें हो फ़िरसे कोई जाम,
ज़रूरी तो नहीं...!