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क़ोई तो दोशसे,
बार-ए-सफ़र उतारेग़ा...
हज़ारों राहज़न,
उम्मीदवार राहमें हैं...
हैंदर अली आतिश
8842क़ुछ इस तपाक़से,राहें लिपट पड़ीं मुझसे...क़ि मैं तो सम्त-ए-सफ़रक़ा,निशान भूल ग़या.......अंज़ुम ख़लीक़
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हम थे राहें,
तराशनेक़े लिए...
शामिल इस फ़र्ज़में,
सफ़र तो न था.......!
बलराज़ हैंरत
8844ला से लाक़ा सफ़र था,तो फ़िर क़िस लिए,हर ख़म-ए-राहसे,जाँ उलझती रहीं...?अब्दुल अहद साज़
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हज़ार राह चले,
फ़िर वो रहग़ुज़र आई...
क़ि इक़ सफ़रमें रहें,
और हर सफ़रसे ग़ए.......
उबैदुल्लाह अलीम
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