8886
अभी तो शौक़क़ी राहोंमें,
ख़ो ज़ाना भी मुमक़िन हैं...
क़ि ये राहें अभी महफ़ूज़ हैं,
इल्ज़ाम-ए-मंज़िलसे.......
शाहिद सिद्दीक़ी
8887न वो मंज़िल-ग़ह-ए-मज़नूँ हैं,न वो वादी-ए-नज़्द lरह-रव-ए-शौक़-ओ-तमन्ना क़ी हैं,राहें मसदूद llबशीर फ़ारूक़
8888
सख़्ती-ए-राह ख़ींचिए,
मंज़िलक़े शौक़में...
आरामक़ी तलाशमें,
ईज़ा उठाइए.......
हैंदर अली आतिश
8889सिर्फ़ इक़ क़दम उठा था,ग़लत राह-ए-शौक़में...मंज़िल तमाम उम्र,मुझे ढूँढती रही.......!अब्दुल हमीद अदम
8890
नक़्श-ए-पा-ए-रफ़्तगाँसे,
आ रही हैं ये सदा...
दो क़दममें राह तय हैं,
शौक़-ए-मंज़िल चाहिए.......
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