8891
ज़ुदा मक़्सद, ज़ुदा मशरब,
ज़ुदा राहें, ज़ुदा मंज़िल...
न दुनिया मेरे क़ाम आई,
न मैं दुनियाक़े क़ाम आया...
ख़लिश बड़ौदवी
8892मुझे आ ग़या यक़ीं सा,क़ि यहीं हैं मेरी मंज़िल...सर-ए-राह ज़ब क़िसीने,मुझे दफ़अतन पुक़ारा.......शक़ील बदायुनी
8893
बहुत बे-रब्त रहनेक़ा,
ये ख़म्याज़ा हैं शायद...
क़ि मंज़िल सामने हैं,
और राहें क़ट चुक़ी हैं.......
ख़ुशबीर सिंह शाद
8894अपनी अपनी राहें हैं,अपनी अपनी मंज़िल हैं lक़ार-ग़ाह-ए-हस्तीमें,रहते हैं सभी तन्हा llरफ़ीक़ ख़ावर ज़स्कानी
8895
ज़ुदा मेरी मंज़िल, ज़ुदा तेरी राहें ;
मिलेंग़ी न अब तेरी मेरी निग़ाहें l
मुझे तेरी दुनियासे हैं दूर ज़ाना,
न ज़ी क़ो ज़लाना मुझे भूल ज़ाना ll
राज़ा मेहदी अली ख़ाँ
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