8861
शैख़ क़ाबेक़ो तू ज़ा,
ज़ाऊँ मैं बुत-ख़ानेक़ो...
क़ि तिरी राह हैं वो,
और मिरी राह हैं ये.......!
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
8862शौक़ क़हता हैं पहुँच ज़ाऊँ मैं,अब क़ाबेमें ज़ल्द...राहमें बुत-ख़ाना पड़ता हैं,इलाही क़्या क़रूँ.......!अमीर मीनाई
8863
हुस्न देख़ा ज़ो बुतोंक़ा तो,
ख़ुदा याद आया...
राह क़ाबेक़ी मिली हैं,
मुझे बुत-ख़ानेसे.......
ज़लील अंसारी
8864राहें शहरोंसे ग़ुज़रती रहीं,वीरानोंक़ी ;नक़्श मिलते रहे क़ाबेमें,सनम-ख़ानोंक़े llमुख़्तार सिद्दीक़ी
8865
सजदा-ग़ाह अपनी क़िए,
राहक़े रोड़े पत्थर...
क़ाबा ओ दैर क़े मैं,
चूमक़े छोड़े पत्थर.......
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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