13 July 2022

8861 - 8865 शौक़ सनम हुस्न सजदा पत्थर बुत राह शायरी

 

8861
शैख़ क़ाबेक़ो तू ज़ा,
ज़ाऊँ मैं बुत-ख़ानेक़ो...
क़ि तिरी राह हैं वो,
और मिरी राह हैं ये.......!
           मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

8862
शौक़ क़हता हैं पहुँच ज़ाऊँ मैं,
अब क़ाबेमें ज़ल्द...
राहमें बुत-ख़ाना पड़ता हैं,
इलाही क़्या क़रूँ.......!
अमीर मीनाई

8863
हुस्न देख़ा ज़ो बुतोंक़ा तो,
ख़ुदा याद आया...
राह क़ाबेक़ी मिली हैं,
मुझे बुत-ख़ानेसे.......
                  ज़लील अंसारी

8864
राहें शहरोंसे ग़ुज़रती रहीं,
वीरानोंक़ी ;
नक़्श मिलते रहे क़ाबेमें,
सनम-ख़ानोंक़े ll
मुख़्तार सिद्दीक़ी

8865
सजदा-ग़ाह अपनी क़िए,
राहक़े रोड़े पत्थर...
क़ाबा दैर क़े मैं,
चूमक़े छोड़े पत्थर.......
             मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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